मानव सभ्यता के अस्तित्व का आधार संवेदना है। यदि संवेदना मनुष्य के भीतर से समाप्त हो जाए, तो समाज की संरचना विकृत हो जाएगी। वर्तमान में सामाजिक असमानता और आर्थिक शोषण चरम पर हैं, और दलित समुदाय इसका सबसे बड़ा शिकार बन रहा है। उनके पास सीमित संसाधन हैं, और जो थोड़े-बहुत हैं, वे भी शोषण, नशे और अन्य कुप्रथाओं के कारण नष्ट हो जाते हैं।
कल्पना कीजिए, यदि इस देश में जूतों की 50 कंपनियों के मालिक दलित होते, और उनके पास टेक्नोलॉजी, पूंजी और बाजार की समझ होती, तो न केवल वे स्वयं सशक्त होते बल्कि समाज की कई बुराइयों से भी मुक्ति पा सकते थे। लेकिन उन्हें ऐसी परिस्थितियों में ढाल दिया गया है कि उन्हें अपने घर-परिवार से दूर जाकर जीविका कमानी पड़ती है। कोरोना महामारी के दौरान जो परिदृश्य सामने आया, वह अत्यंत दर्दनाक था—लाखों दलित मजदूरों को शहरों से इस तरह भगाया गया जैसे वे कोई एलियन हों।
वर्षों तक किसी शहर के निर्माण में योगदान देने के बावजूद, जब अचानक उन्हें वहां से निकाल दिया गया, तो उनके मन पर क्या बीती होगी? अब वही उद्योगपति और नेता मजदूरों को वापस बुलाने के लिए विशेष सुविधाएं दे रहे हैं, लेकिन यह संख्या नगण्य है। पूंजीवाद का निर्मम स्वरूप यह है कि वह संवेदनहीनता के कारण समाज को कुचलता जा रहा है। अगर मजदूरों को उनके गांवों के पास ही रोजगार मिलता, तो वे बेहतर जीवन जी सकते थे। लेकिन कच्चा माल, श्रम और पूंजी हमसे लेकर, फैक्ट्रियां शहरों में लगाई जाती हैं और फिर बने उत्पाद हमें ही बेचे जाते हैं—यह एक विडंबना है, जिसमें दलित मुक्ति का कोई मार्ग नहीं दिखता।
दलित आंदोलन को अब केवल दलितों के अधिकारों तक सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि उन्हें समग्र समाज के नेतृत्व की दिशा में बढ़ना चाहिए। डॉ. भीमराव अंबेडकर ने इसे करके दिखाया था, तो आज कोई दलित कार्यकर्ता समग्र समाज का नेतृत्व करने का सपना क्यों नहीं देख सकता? यदि दलित संगठन केवल अपने समुदाय तक सीमित रहेंगे और सत्ता के लिए सौदेबाजी करेंगे, तो वे महज राजनीतिक मोहरे बनकर रहेंगे और अपने समाज को भी मोहरा बनाए रखेंगे।
दलित मुक्ति का असली अर्थ समाज में व्याप्त घृणा का अंत और समता की स्थापना है। जब तक मानसिक रूप से समाज नहीं बदलेगा, तब तक जाति और श्रेणी का भेद बना रहेगा। गांधी जी के साथ कुछ नेतृत्व विकसित हुआ था, लेकिन अब दलित आंदोलन भी पूंजीवाद की गिरफ्त में आ चुका है। पूंजीवाद ने समाज को इतने टुकड़ों में बांट दिया है कि असली मुद्दे गौण हो गए हैं। विकास के नाम पर जो असमानता बढ़ रही है, उसका उत्तरदेय कौन होगा? कोरोना जैसी आपदाएं समाज की उपभोक्तावादी प्रवृत्ति का परिणाम हैं, लेकिन इसका भार सबसे अधिक गरीबों और दलितों को उठाना पड़ा।
आज हमारे देश में विकास के नाम पर एक नए प्रकार की उपनिवेशवादी (जहां गुलामी मानसिकता के साथ मजदूरों को सीमित संसाधनों के साथ रहने को मजबूर कर दिया जाता है) संरचना बन गई है—पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, मुंबई, बैंगलोर, हैदराबाद जैसे क्षेत्र कॉलोनियों में तब्दील हो गए हैं, जहां संसाधनों को खींचकर पहुंचाया जाता है और बाकी देश (गांव, कस्बे, छोटे नगर) उपेक्षित रह जाता है। बिहार जैसे राज्य विकास की दौड़ में पिछड़े रह गए हैं। क्या इतने बड़े राज्य की उपेक्षा कर देश की एकता और अखंडता को बनाए रखा जा सकता है?
दलितों को इस असमानता के खिलाफ आवाज उठानी होगी, लेकिन केवल अपने अधिकारों तक सीमित रहकर नहीं, बल्कि समग्र समाज के लिए नेतृत्व की तैयारी करनी होगी। इस संदर्भ में कांग्रेस पार्टी ने ऐतिहासिक कदम उठाते हुए माननीय मल्लिकार्जुन खरगे जी को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया, आज बिहार प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष के रूप में श्री राजेश कुमार जी को अध्यक्ष बनाया है, जो यह दर्शाता है कि कांग्रेस दलितों को वास्तविक नेतृत्व प्रदान करने की मंशा रखती है। कांग्रेस के इस कदम से दलित समुदाय को न केवल राजनीतिक बल्कि सामाजिक सशक्तिकरण का अवसर भी मिलेगा।
अंतिम जन की मुक्ति का अर्थ केवल सत्ता परिवर्तन नहीं, बल्कि एक नई सामाजिक संरचना का निर्माण है। आज की विद्या, विज्ञान और टेक्नोलॉजी जिनके पास है, वही सशक्त हैं। दलितों को भी इस ज्ञान, पूंजी और शक्ति को अपने पक्ष में करना होगा।
समानता की ओर जाने का मार्ग वर्चस्व की लड़ाई नहीं, बल्कि एक समावेशी समाज की रचना है। इसके लिए दलित नेतृत्व को खुद को विद्या, पूंजी और तकनीकी से पूर्ण करना होगा। समता समाज का निर्माण तभी संभव है जब समाज में सबसे निचली सीढ़ी पर खड़े व्यक्ति को समान अवसर मिले और वो अपने को गौरवान्वित महसूस करे। इसे सत्ता के लिए संघर्ष का माध्यम बनाने के बजाय, समावेशी विकास का माध्यम बनाना होगा। जब तक यह समझ विकसित नहीं होती, तब तक दलित आंदोलन एक सीमित दायरे में ही सिमट कर रह जाएगा और अपने समाज को आगे नहीं बढ़ने देगा।
- सौरभ त्यागी